सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि महिलाओं की भलाई के लिए बनाए गए कानूनों के सख्त प्रावधानों का उद्देश्य उनके पतियों को दंडित करना, धमकाना, या उनसे जबरन वसूली करना नहीं है। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने यह बयान उस समय दिया, जब वे एक दंपति के अलगाव से संबंधित मामले की सुनवाई कर रहे थे। पीठ ने स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह एक पवित्र प्रथा है और परिवार की नींव को मजबूत करने के लिए है, न कि यह कोई व्यावसायिक समझौता है।
“सख्त प्रावधान सुरक्षा और भलाई के लिए”
न्यायालय ने कहा कि विशेष रूप से वैवाहिक विवादों से संबंधित मामलों में भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं को लागू करने के बारे में शीर्ष अदालत ने कई बार सख्त टिप्पणी की है। इनमें दुष्कर्म, आपराधिक धमकी और क्रूरता जैसे अपराध शामिल हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि महिलाओं को यह समझने की जरूरत है कि कानून के ये सख्त प्रावधान उनकी सुरक्षा और भलाई के लिए हैं। इन्हें कभी भी पतियों को दंडित करने, उन्हें धमकाने, उन पर हावी होने या उनसे जबरन वसूली करने के साधन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।”
“कुछ महिलाएं इन गंभीर आरोपों का गलत उपयोग करती हैं”
यह टिप्पणी उस मामले में की गई, जिसमें एक पति को अपनी पत्नी को उसके सभी दावों के पूर्ण और अंतिम निपटान के रूप में 12 करोड़ रुपये का स्थायी गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया गया था। पीठ ने कहा कि यह रिश्ता पूरी तरह से टूट चुका है और इसलिए विवाह को समाप्त करने का आदेश दिया। हालांकि, न्यायालय ने उन मामलों पर चिंता व्यक्त की, जहां पत्नी और उसके परिवार ने अपराधों की गंभीरता का सहारा लेते हुए अपने पति और उसके परिवार से मांगों को पूरा करने के लिए आपराधिक शिकायतों का उपयोग किया। न्यायालय ने कहा कि कुछ महिलाएं इन गंभीर आरोपों का गलत उपयोग करती हैं, जो इन प्रावधानों का उद्देश्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस कई बार ऐसे मामलों में कार्रवाई में जल्दबाजी करती है और पति और उसके रिश्तेदारों, जिनमें वृद्ध माता-पिता और दादा-दादी भी शामिल होते हैं, को बिना किसी ठोस आधार के गिरफ्तार कर लेती है। पीठ ने कहा कि वहीं अधीनस्थ न्यायालय भी प्राथमिकी में अपराध की गंभीरता के कारण आरोपी को जमानत देने से परहेज करते हैं।