…………..कविता……………….
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(गुलशन निखर रहे हैं)
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बदल रहा है उदास मौसम,
यकीन के पल संवर रहे हैं।
नया-नया सा लगाये आलम,
ये गुल, ये गुलशन निखर रहे हैं।
ये गम के आंसू ठिठक गए थे,
न ढल सके तो छिटक गए थे।
था दब-दबा, गुबार दिल का,
लो आज हम फिर संभल रहे हैं।
दो राहे पर हम भटक रहे थे,
न पायी मंजिल तरस रहे थे।
सदाएं दिल की मिली कहीं से,
हम कशमकश से उबर रहे हैं।कबूल होगी दुआ हमारी,
रहेगी खुशियों में हिस्सेदारी।
जहाँ तलक है निगाह हमारी,
खुशगवार जलवे उभर रहे हैं।
नया- नया सा लगा ये आलम,
ये गुल, ये गुलशन निखर रहे हैं।
सुनील दत्त दुबे (पुलिस उपाधीक्षक) जिला-गोरखपुर (यूपी)
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……………♦️कविता (निर्दोष)……….
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ग़लतियों से जुदा तू भी नहीं, मैं भी नहीं।
दोनो इंसान हैं , खुदा तू भी नहीं , मैं भी नहीं।।
तू मुझे और मैं तुझे इल्ज़ाम देते हैं मगर।
अपने अंदर झाँकता तू भी नहीं , मैं भी नहीं।।
भाई ही दुश्मन और भाई ही सबसे बड़ा दोस्त।
ये बात समझता, तू भी नहीं , मैं भी नहीं।।
भूल जाता तू एक दूसरे के एहसानो को।
चंद बातों को लेकर बोलता तू भी नहीं,मैं भी नहीं।।
सही देखें तो गलत तू भी नहीं, मैं भी नहीं।
इसे समझने में बीत गए वर्षों जल्दी समझता तू भी नहीं, मैं भी नहीं।।
ये नवाजिश है वक्त की मेहरबानी , ‘आलम’,।
वरना फितरत का बुरा तू भी नहीं , मैं भी नहीं।।
चल हठ अब छोड़ दुनियादारी ‘आलम’।
उठा कलम लिख सच जो जानता तू भी नहीं, वो भी नहीं।।
✍️ आलम हिन्दुस्तानी
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ग़ज़ल… 🌹🌹🌹🌹
ज़िंदगी को जीना सीख लीजिए।
दर्दो गम को पीना सीख लीजिए॥
ज़िंदगी खुदा की ही रजा है।
हर पल को जीना सीख लीजिए॥
बहारों के मौसम तो आएंगे हजारों।
ग़मे महफिल में जीना सीख लीजिए॥
नशीला समां तो नशीला रहेगा।
घुटन की मय पीना सीख लीजिए॥
कलम सुईं गीत धागा है ‘सुमन’।
ज़ख़्म दिल के सीना सीख लीजिए॥
…. डॉ दीपिका माहेश्वरी ‘सुमन’ (अहंकारा) नजीबाबाद
……………………………………………कविता(कौन हो प्रिये तुम)……………
हो कौन प्रिये तुम,
गये हो हृदय में फंस पीर बन ! आती हैं तन्हाइयों में रानाइयाँ,
बहते हो नयनों में नीर बन तुम । तुम करते हृदय से खेल मेरे,
असंभव है धरती-गगन का मेल मेरे।
नयनों मे भरे ख्वाब हसीन मेरे,
तेरा ही नाम जपता शाम औ सवेरे।
पलकों के तराजू पर उठाते- गिराते हो,
दिल के बाजार में भाव घटिया लगाते हो।
● अजय शर्मा’यात्री’
• खुटार- शाहजहाँपुर (उ०प्र०) •